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बहन के साथ चूत चुदाई का मजा-1

मेरा नाम अमित है, और मैं 21 साल का एक नौजवान हूँ, जो मुंबई की चमचमाती गलियों और तंग बस्तियों में अपनी जिंदगी बिता रहा है। मेरी दीदी, संगीता, मुझसे पांच साल बड़ी हैं, यानी 26 की। उनकी खूबसूरती ऐसी कि बस दिल धड़कने लगे। गोरा रंग, नाजुक चेहरा, और हिंदी फिल्मों की हिरोइन जैसी अदाएं—जैसे जीनत अमान, हाँ, उनकी चूचियां उतनी बड़ी नहीं, पर इतनी सुडौल कि नजर हटाए न हटे।

हम एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं, और मुंबई के एक छोटे से फ्लैट में रहते हैं। फ्लैट तंग है—एक हॉल, डायनिंग रूम, दो बेडरूम, एक किचन, और सिर्फ एक बाथरूम, जो सबके लिए साझा है। माँ-पिताजी दोनों नौकरी करते हैं, सुबह निकलते हैं और शाम को लौटते हैं। घर में ज्यादातर मैं और दीदी ही होते हैं। दीदी मुझे “अमित” कहकर पुकारती हैं, और मैं उन्हें “दीदी”।

शुरुआत में मुझे सेक्स का ज्यादा ज्ञान नहीं था। कॉलेज में पढ़ता था, पर आसपास कोई ऐसी लड़की नहीं थी, जिसके साथ कुछ बात बन सके। हमारी बिल्डिंग में भी मेरी उम्र की लड़कियां नहीं थीं। हाँ, कभी-कभार पॉर्न मैगजीन में नंगी तस्वीरें देख लेता था, और उसी से दिल बहलता था। पर जैसे-जैसे सेक्स की समझ बढ़ी, मेरी नजरें दीदी पर टिकने लगीं। वो घर में इकलौती थीं, जिनके करीब मैं था, और धीरे-धीरे मेरे मन में उनके लिए कुछ और ही खयाल आने लगे।

मुझे आज भी याद है, पहली बार मैंने दीदी को सोचकर मुठ मारी थी। एक रविवार की सुबह थी। दीदी बाथरूम से नहाकर निकलीं, उनके गीले बालों से पानी टपक रहा था, और उनकी नाइटी उनके नरम बदन से चिपकी हुई थी, जैसे उनके कर्व्स को उभार रही हो। मैं जल्दी से बाथरूम में घुस गया। दरवाजा बंद किया, कपड़े उतारे, और जोर की पेशाब लगी थी, सो वो किया। फिर, न जाने क्यों, मेरा ध्यान दीदी के कपड़ों पर गया, जो बाथरूम के कोने में पड़े थे। उनकी साटन की नाइटी, काली ब्रा, और नीली पैंटी।

मैंने नाइटी उठाई, और उसके नीचे से ब्रा और पैंटी दिखीं। जैसे ही मैंने उनकी काली ब्रा हाथ में ली, मेरा लौड़ा अपने आप तन गया, जैसे कोई लोहा गर्म होकर लाल हो जाए। फिर पैंटी उठाई, और उसकी मुलायम साटन की खुशबू ने मुझे पागल कर दिया। एक हाथ में ब्रा, दूसरे में पैंटी—मैंने दोनों को सूंघा, चूमा, चाटा। वो खुशबू, वो एहसास—जैसे दीदी का नंगा बदन मेरे सामने हो। मैंने पैंटी को अपने तने हुए लौड़े पर लपेट लिया, और वो इतनी टाइट थी कि मेरा लौड़ा उसमें जकड़ गया। ब्रा को मैंने अपनी छाती पर रखा, जैसे दीदी की चूचियां मेरे सीने से सट रही हों।

फिर मैंने नाइटी को बाथरूम की दीवार पर हैंगर से टांगा, ब्रा को ऊपर पिन से लगाया, और पैंटी को कमर के पास। ऐसा लगा, जैसे दीदी नंगी मेरे सामने खड़ी हों, मुझे अपनी चूचियां और चूत दिखा रही हों। मैं नाइटी से चिपक गया और ब्रा को चूसने लगा, जैसे दीदी की नरम चूचियां मेरे मुंह में हों। मेरा लौड़ा पैंटी पर रगड़ रहा था, और मैं सोच रहा था कि मैं दीदी की रसीली चूत में पेल रहा हूँ। मैं इतना गरम हो गया कि मेरा लौड़ा फूलकर कड़क हो गया। हर रगड़ के साथ मेरी सांसें तेज हो रही थीं। मैंने पैंटी को और जोर से रगड़ा, और कल्पना की कि दीदी की गीली चूत मेरे लौड़े को निगल रही है। कुछ ही पलों में मेरा वीर्य छूट गया—पहली बार इतना तेज कि मेरे पैर कांपने लगे। वीर्य की पिचकारी ने दीदी की पैंटी और नाइटी को भिगो दिया। मैं हांफते हुए बाथरूम के फर्श पर बैठ गया, जैसे शरीर में जान ही न बची हो।

थोड़ी देर बाद होश आया, तो मैंने शॉवर लिया। ठंडे पानी ने ताजगी दी, और मेरा दिमाग थोड़ा शांत हुआ। मैंने दीदी के कपड़ों को धोकर साफ किया और वापस रख दिया। उस दिन के बाद, हर रविवार को यही मेरा रूटीन बन गया। मैं इंतजार करता कि दीदी नहाए, और उनके बाथरूम से निकलते ही मैं घुस जाऊं। माँ-पिताजी सुबह जल्दी उठते थे—माँ रसोई में नाश्ता बनातीं, और पिताजी बालकनी में अखबार पढ़ते या बाजार चले जाते। रविवार को घर का माहौल ढीला रहता, और मुझे मौका मिलता।

हर बार मुठ मारते वक्त मैं दीदी की रसीली चूत की कल्पना करता। सोचता, दीदी नंगी कैसी दिखेंगी? उनकी चूत चोदने में कैसा मजा आएगा? उनकी गोल गांड को पकड़कर पेलने का खयाल मेरे दिमाग में दिन-रात घूमता। कई बार सपने में मैं उन्हें नंगी चोदता, और सुबह मेरा शॉर्ट्स गीला मिलता। मैंने अपने इन गंदे खयालों को सबसे छुपाए रखा, खासकर दीदी से।

कॉलेज में दाखिल हुआ, तो कुछ गर्लफ्रेंड्स बनीं। दो-चार के साथ चुदाई भी की—कभी हॉस्टल के पीछे, कभी किसी दोस्त के फ्लैट में। पर कोई भी दीदी की बराबरी न कर सका। हर बार जब मैं किसी लड़की को चोदता, दीदी का चेहरा सामने आता। उनकी नरम चूचियां, उनकी गोल गांड—बस, वो ही मेरे दिमाग में रहतीं। मैं कोशिश करता कि दीदी के खयाल दिमाग से निकाल दूं, पर वो बार-बार लौट आते। 24 घंटे बस दीदी की चूचियां, उनकी गांड, और उनकी चूत के बारे में सोचता रहता।

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घर में दीदी को चुपके-चुपके देखना मेरा शौक बन गया। जब वो कपड़े बदलतीं—कभी किचन में, कभी बेडरूम में—मैं कनखियों से उनकी सुडौल चूचियां या गोल चूतड़ देख लेता। हमारा फ्लैट इतना छोटा था कि कई बार उनका बदन मुझसे टकरा जाता। मैं उनके करीब जाने के बहाने ढूंढता—कभी बालकनी में, कभी हॉल में। दीदी की हर अदा—उनका हंसना, उनकी चाल, उनकी नाइटी में झांकती चूचियां—मुझे पागल करती थीं।

बालकनी मेरा फेवरेट स्पॉट था। वो संकरी थी, और सामने गली की टिमटिमाती रौशनी दिखती थी। मैं रेलिंग के सहारे खड़ा होकर सड़क देखता, और दीदी जब आतीं, तो मैं थोड़ा हटकर उनके लिए जगह बनाता। वो मेरे बगल में सटकर खड़ी हो जातीं। उनकी चूचियां मेरी छाती से टकरातीं, और मेरी उंगलियां धीरे-धीरे उनकी चूचियों को छू लेतीं। मैं हल्के-हल्के सहलाता, जैसे अनजाने में हो। उनकी चूचियां नरम, पर तनी हुई थीं—जैसे कोई रसीला फल, जो पकने को तैयार हो। कभी-कभी मैं उनके चूतड़ों को भी छू लेता, और मेरा लौड़ा पैंट में तन जाता। मुझे लगता, दीदी को कुछ पता नहीं, पर मैं गलत था।

एक दिन दीदी ने मुझे पकड़ लिया। वो किचन में कपड़े बदल रही थीं। हॉल और किचन के बीच का पर्दा थोड़ा खुला था। दीदी ने कुर्ती उतारी, और उनकी काली ब्रा में कैद चूचियां मेरे सामने थीं, जैसे दो गोरे-गोरे रसगुल्ले। मैं टीवी देख रहा था, पर कनखियों से उन्हें घूर रहा था। अचानक दीदी ने दीवार के शीशे में मुझे देख लिया। मेरी नजर उनकी चूचियों पर थी। शीशे में हमारी आंखें टकराईं, और मैं शर्म से पानी-पानी हो गया। मैंने फटाक से नजर टीवी पर कर ली। मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। सोचने लगा, अब क्या होगा? क्या दीदी माँ-पिताजी को बता देंगी? क्या वो मुझसे नाराज होंगी?

अगले दो-तीन दिन मैं दीदी से नजरें नहीं मिला सका। डर था कि वो गुस्सा करेंगी। पर कुछ हुआ नहीं। धीरे-धीरे मेरी हिम्मत बढ़ी, और मैं फिर से उन्हें घूरने लगा। दीदी ने मुझे दो-तीन बार और पकड़ा, पर कुछ बोलीं नहीं। मुझे यकीन हो गया कि उन्हें मेरे इरादे पता हैं, और शायद उन्हें बुरा नहीं लगता।

एक दिन हम बालकनी में खड़े थे। दीदी मेरे सटकर खड़ी थीं, और मैं उनकी चूचियों पर उंगलियां फेर रहा था। मुझे लगा, उन्हें कुछ पता नहीं, क्योंकि वो मुझसे सटकर बातें कर रही थीं—कॉलेज, स्पोर्ट्स, और फालतू की चीजों पर। बालकनी में हल्का अंधेरा था, और सामने गली की रौशनी टिमटिमा रही थी। अचानक दीदी ने मेरी उंगलियों को पकड़ लिया और अपनी चूची से हटा दिया। उनका बदन अकड़ गया, और वो चुप हो गईं। पर वो मेरे पास से हिलीं नहीं, और मेरे साथ सटकर खड़ी रहीं।

मेरी हिम्मत बढ़ी। मैंने पूरा पंजा उनकी एक चूची पर रख दिया। मेरा शरीर कांप रहा था। सोच रहा था, अब दीदी चिल्लाएंगी। पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। बस एक बार मुझे देखा, और फिर सड़क की तरफ देखने लगीं। मैं भी डर के मारे उनकी तरफ नहीं देख सका। धीरे-धीरे उनकी चूची सहलाने लगा। उनकी कुर्ती और ब्रा इतनी पतली थीं कि मैं उनके निप्पल का उभार महसूस कर सकता था। मैंने चूची को जोर से मसला, और वो इतनी बड़ी थी कि मेरे हाथ में पूरी समाती नहीं थी। उनकी चूची नरम थी, पर इतनी तनी कि मेरे लौड़े में आग लग गई।

थोड़ी देर बाद उनके निप्पल तन गए, जैसे दो कड़क अंगूर। मैं समझ गया, दीदी गरमा रही हैं। मैंने उंगली और अंगूठे से उनके निप्पल को दबाया, हल्के-हल्के खींचा। हर दबाव के साथ दीदी कसमसातीं, और उनका चेहरा शर्म और उत्तेजना से लाल हो गया। उनकी सांसें तेज हो रही थीं, और उनकी चूचियां मेरे हाथों में और गर्म लग रही थीं। फिर वो धीरे से बोलीं, “धीरे दबा, अमित। दुखता है।” मैंने रफ्तार कम की, पर मसलना जारी रखा। मेरी उंगलियां उनकी चूची के हर हिस्से को सहला रही थीं—निप्पल से लेकर चूची के नरम गोले तक। हम सड़क की तरफ देख रहे थे, पर मेरा सारा ध्यान उनकी चूचियों की गर्मी पर था। मेरा लौड़ा पैंट में तनकर दुखने लगा था।

अचानक माँ की आवाज आई, “संगीता, जरा इधर आ!” दीदी ने फटाक से मेरा हाथ हटाया और माँ के पास चली गईं। मैं बालकनी में अकेला खड़ा रह गया, मेरा लौड़ा पैंट में तंबू बनाए हुए था। उस रात मैं सो नहीं सका। सारी रात दीदी की चूचियों का नरम, गर्म एहसास मेरे दिमाग में घूमता रहा। मैंने दो बार मुठ मारी, पर दीदी की चूचियों का खयाल जाने का नाम न ले रहा था।

अगले दिन शाम को मैं बालकनी में खड़ा था। दीदी आईं और मेरे बगल में खड़ी हो गईं। मैं चुपचाप उन्हें देखता रहा। फिर धीरे से बोला, “छूना है।” दीदी ने पूछा, “क्या छूना चाहता है?” मैं हकलाया, “तुम्हारी… दूध।” दीदी मुस्कुराईं, “साफ-साफ बोल, क्या छूना है?” मैंने हिम्मत जुटाकर कहा, “तुम्हारी चूचियां, दीदी। मसलना है।” वो हल्के से हंसीं और बोलीं, “अभी माँ आ सकती है।” मैंने कहा, “माँ आएगी, तो पता चल जाएगा।”

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दीदी चुप हो गईं और मेरे करीब सटकर खड़ी हो गईं। उनकी चूचियां मेरे हाथ को छू रही थीं। मैंने धीरे से पंजा उनकी चूची पर रखा। वो नरम, गर्म एहसास—जैसे स्वर्ग मिल गया। मैंने पहले हल्के-हल्के सहलाया, फिर जोर से मसला। उनकी पतली कुर्ती और ब्रा में से उनके निप्पल का उभार साफ महसूस हो रहा था। मैंने उंगली और अंगूठे से उनके निप्पल को दबाया, हल्का-हल्का खींचा। दीदी हर बार कसमसातीं, और उनकी सांसें तेज हो रही थीं। उनका चेहरा शर्म और उत्तेजना से लाल था। वो धीरे से बोलीं, “धीरे, अमित। और जोर से मत दबा।” मैंने रफ्तार कम की, पर मसलना नहीं छोड़ा। मेरी उंगलियां उनकी चूची के चारों तरफ घूम रही थीं, और मैं उनकी गर्मी को अपने हाथों में महसूस कर रहा था। मेरा लौड़ा पैंट में तनकर फटने को तैयार था।

ऐसे ही दो-तीन दिन चला। मैं रोज उनकी एक चूची मसलता, पर मन था कि दोनों को एक साथ पकड़ूं। बालकनी में ये मुमकिन नहीं था, क्योंकि जगह कम थी और माँ का डर रहता था। मैंने दो दिन तक सोचा कि क्या करूं। फिर एक शाम मैं हॉल में टीवी देख रहा था। माँ और दीदी किचन में डिनर बना रही थीं। दीदी काम खत्म करके हॉल में आईं और बिस्तर पर पालथी मारकर बैठ गईं। थोड़ी देर टीवी देखा, फिर अखबार उठाकर पढ़ने लगीं।

मैं उनके करीब बैठा था। मेरा पैर उनकी जांघ को छू रहा था। मैंने पैर को और खिसकाया, और अब उनकी नरम, गोल जांघ मेरे पैर से सट गई। दीदी ने काला, पतला टी-शर्ट पहना था, और उसमें से उनकी काली ब्रा साफ दिख रही थी, जैसे मुझे ललकार रही हो। मैंने धीरे से हाथ उनकी पीठ पर रखा और टी-शर्ट के ऊपर से सहलाने लगा। दीदी का बदन अकड़ गया। वो दबी आवाज में बोलीं, “ये क्या कर रहा है, अमित? पागल हो गया है? माँ किचन से देख लेगी।”

मैंने कहा, “माँ कैसे देखेंगी? तुम्हारे सामने अखबार है। वो सिर्फ अखबार देखेंगी।” दीदी मुस्कुराईं और बोलीं, “बड़ा शैतान है तू।” फिर वो चुप हो गईं और अखबार फैलाकर पढ़ने लगीं। मैंने हाथ उनकी दाहिनी चूची पर रखा। दीदी कांप गईं। मैंने धीरे-धीरे मसलना शुरू किया, जैसे कोई नाजुक फूल सहला रहा हो। फिर दूसरा हाथ उनकी बाईं चूची पर रखा। अब मैं दोनों चूचियों को एक साथ मसल रहा था। उनकी निप्पल तन गई थीं, और मैं उन्हें उंगलियों से खींच रहा था। हर खींचने पर दीदी की सांसें तेज हो रही थीं, और उनकी चूचियां मेरे हाथों में और गर्म लग रही थीं।

मैंने उनका टी-शर्ट पीछे से उठाने की कोशिश की, पर वो उनके चूतड़ों के नीचे दबा था। दीदी ने मेरी मंशा भांप ली। वो हल्के से झुकीं, अपने गोल चूतड़ों को थोड़ा ऊपर उठाया, और मैंने टी-शर्ट ऊपर खींच लिया। उनकी चिकनी, गोरी पीठ नजर आई, जैसे कोई मखमली चादर। मैंने हाथ टी-शर्ट के अंदर डाला और उनकी ब्रा के ऊपर से चूचियों को पकड़ लिया। उनकी निप्पल को जोर-जोर से दबाया, हल्का-हल्का मरोड़ा। दीदी की सांसें अब सिसकारियों में बदल रही थीं, पर वो चुपचाप अखबार पढ़ती रही। मैं सोच रहा था, माँ किचन में खाना बना रही हैं, और दीदी मुझे अपनी चूचियां मसलने दे रही हैं—वो भी इतने करीब।

फिर मैंने ब्रा का हुक खोलने की कोशिश की। ब्रा इतनी टाइट थी कि हुक नहीं खुल रहा था। मैंने जोर लगाया, और आखिरकार हुक खुल गया। दीदी का बदन कांप गया। वो कुछ कहने वाली थीं, तभी माँ हॉल में आ गईं। मैंने फटाक से टी-शर्ट नीचे किया और हाथ हटा लिया। माँ दीदी से बात करने लगीं, और दीदी अखबार में नजर गड़ाए जवाब दे रही थीं। माँ को हमारे कारनामों का कुछ पता नहीं चला।

माँ के जाने के बाद दीदी दबी आवाज में बोलीं, “अमित, मेरी ब्रा का हुक लगा।” मैंने कहा, “नहीं लगेगा, दीदी। बहुत टाइट है।” वो गुस्से में बोलीं, “तूने खोला, अब तू ही लगाएगा।” मैंने कोशिश की, पर हुक नहीं लगा। मेरी उंगलियां उनकी नरम पीठ पर फिसल रही थीं, और मेरा लौड़ा फिर तन गया। दीदी बोलीं, “अखबार पकड़, मैं लगाती हूँ।” मैंने अखबार पकड़ा, और दीदी ने पीछे हाथ ले जाकर हुक लगाया। ब्रा इतनी टाइट थी कि उन्हें भी दिक्कत हो रही थी। आखिरकार हुक लग गया। तभी माँ फिर आ गईं। मैं उठकर टॉयलेट चला गया, क्योंकि मेरा लौड़ा इतना गरम हो चुका था कि उसे ठंडा करना जरूरी था।

अगले दिन बालकनी में दीदी बोलीं, “कल हम पकड़े जाते-जातते। मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई।” मैंने कहा, “हाँ, तुम्हारी ब्रा इतनी टाइट थी कि हुक नहीं लगा।” दीदी हंसीं और बोलीं, “मुझे भी दिक्कत हुई।” मैंने पूछा, “दीदी, तुम रोज ब्रा कैसे लगाती हो?” वो बोलीं, “बाद में समझ जाएगा।” फिर मैंने कहा, “दीदी, सामने हुक वाली ब्रा क्यों नहीं पहनतीं?” वो हंसीं और बोलीं, “वो महंगी होती हैं।” मैंने तपाक से कहा, “मैं पैसे दूंगा।” दीदी मजाक में बोलीं, “चल, 100 का नोट दे।” मैंने पर्स से नोट निकाला और उनके हाथ में थमा दिया।

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दीदी सोच में पड़ गईं, फिर नोट रख लिया और बोलीं, “बस, इस बार। और हाँ, काली ब्रा और पैंटी खरीदूंगी, जैसा तुझे पसंद है।” मैं मुस्कुराया, और वो शरमाकर मुझे मारने दौड़ीं। मैं हंसते हुए भाग गया।

अगले दिन दीदी अपनी सहेली से फोन पर मार्केट जाने की बात कर रही थीं। मैंने कहा, “दीदी, मैं भी चलूंगा।” वो बोलीं, “मैंने सहेली से बात कर ली है।” मैंने कहा, “माँ से बोलो कि मेरे साथ जा रही हो, और सहेली को फोन करके कैंसिल कर दो।” दीदी ने ऐसा ही किया। माँ ने तुरंत हाँ कर दी।

शाम को हम मार्केट गए। भीड़ इतनी थी कि दीदी मेरे पीछे सटकर चल रही थीं। उनके गोल, नरम चूतड़ मेरे जांघों से टकरा रहे थे, और हर टक्कर मेरे लौड़े को और कड़क कर रही थी। हर दुकान पर वो मुझसे चिपककर कपड़े देखतीं। मैं उनके चूतड़ों को हल्के-हल्के सहलाता, और मेरा लौड़ा उनके चूतड़ों से सट जाता। भीड़ का फायदा उठाकर मैं उनकी चूचियों को भी छू लेता। मेरी उंगलियां उनकी चूचियों के उभार पर फिसलतीं, और मैं उनकी गर्मी महसूस करता। मुझे लगा, दीदी को कुछ पता नहीं, पर शायद वो भी मजे ले रही थीं। हम दोनों भीड़ के बहाने एक-दूसरे से सट रहे थे, और मेरा लौड़ा पैंट में तनकर फटने को तैयार था।

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